भारत का संविधान केवल एक विधिक दस्तावेज़ नहीं है; यह उस सभ्यता की आत्मा का साक्ष्य है, जिसने सदियों की असमानताओं और अन्याय के बीच समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का स्वप्न देखा। संविधान का निर्माण केवल शासन की रूपरेखा तय करने का कार्य नहीं था—यह आत्मा के पुनर्निर्माण की ऐतिहासिक यात्रा थी। जब भारत ने स्वतंत्रता पाई, तब उसे केवल शासन का ढाँचा नहीं, बल्कि एक नई नैतिक दिशा की आवश्यकता थी। इसी दिशा को शब्दों और अनुच्छेदों में ढालने की प्रक्रिया भारतीय संविधान सभा ने शुरू की।
पिछले कुछ वर्षों में, विशेषकर सोशल मीडिया के दौर में, एक नया विमर्श तेजी से उभरा है—कि बी.एन. राव ही भारतीय संविधान के “वास्तविक निर्माता” थे और डॉ. भीमराव आंबेडकर को केवल एक राजनीतिक प्रतीक के रूप में उभारा गया। यह तर्क सतह पर आकर्षक लगता है, क्योंकि यह ‘भूले हुए नायक’ को सम्मान देने का आभास देता है, पर जब हम इतिहास के साक्ष्यों, संविधान सभा की कार्यवाहियों और मूल दस्तावेज़ों का अध्ययन करते हैं, तो सच्चाई कहीं अधिक गहराई में छिपी मिलती है। भारत का संविधान किसी एक व्यक्ति की कृति नहीं था;
यह सामूहिक बौद्धिक और वैचारिक मंथन का परिणाम था। बी.एन. राव और बाबा साहेब, दोनों इस महान यात्रा के अनिवार्य यात्री थे—परंतु उनकी भूमिकाएँ भिन्न थीं। राव ने संविधान का मानचित्र तैयार किया, जबकि आंबेडकर ने उस मानचित्र को जीवंत रूप देकर राष्ट्र का स्वरूप गढ़ा। संविधान सभा के औपचारिक गठन से कुछ माह पहले ही जुलाई, 1946 में ब्रिटिश सरकार ने सर बेनेगल नरसिंह राव को संविधान सभा का संवैधानिक सलाहकार नियुक्त किया। वे भारतीय सिविल सेवा के वरिष्ठतम अधिकारियों में से थे और अंतरराष्ट्रीय कानून के प्रकांड ज्ञाता माने जाते थे। उनका कार्य था—विश्व के प्रमुख संविधानों का तुलनात्मक अध्ययन करना और भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप एक प्रारंभिक रूपरेखा प्रस्तुत करना।
उन्होंने ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, आयरलैंड और ऑस्ट्रेलिया के संविधानों का गहन अध्ययन कर “भारत के लिए नये संविधान की रूपरेखा” नामक विस्तृत मसौदा तैयार किया। यह दस्तावेज़ संविधान सभा के लिए एक तकनीकी आधार बना। राव का दृष्टिकोण गहराई से ब्रिटिश संवैधानिक परंपरा से प्रभावित था। वे मानते थे कि भारत जैसे विविध और जटिल समाज के लिए संसदीय प्रणाली ही उपयुक्त होगी, जिसमें मंत्रिपरिषद् जनता के प्रति उत्तरदायी रहे। उन्होंने नागरिक अधिकारों का उल्लेख अवश्य किया, पर उनका स्वरूप मुख्यतः विधिक था, सामाजिक नहीं।
उनके मसौदे में सामाजिक न्याय, जातिगत असमानता या आर्थिक विषमता जैसे भारतीय यथार्थों पर सीमित ध्यान दिया गया था। परंतु इस खाके को संविधान का मूल स्वरूप कहना वैसा ही होगा जैसे किसी वास्तुकार की प्रारंभिक रूपरेखा को पूरे भवन का निर्माण मान लेना। राव का मसौदा उस कल्पनाशील नक्शे की तरह था जिसमें भूमि का माप तो था, पर उस पर खड़े होने वाले स्तंभों की आत्मा नहीं थी। किसी भी भवन की प्रारंभिक ड्राइंग से यह पता चलता है कि दीवारें कहाँ होंगी, दरवाज़े किस दिशा में खुलेंगे और छत कितनी ऊँची होगी—पर यह नहीं बताया जा सकता कि उस घर में कौन-सी खुशबू बसेगी, कौन-से विचार गूंजेंगे और वहाँ का वातावरण कैसा होगा।
ठीक उसी प्रकार राव की रूपरेखा भारतीय संविधान की एक तकनीकी बनावट थी, पर उसमें उस जीवनदायिनी चेतना का समावेश नहीं था जो भारत की सामाजिक विविधताओं, ऐतिहासिक अन्यायों और लोक-आकांक्षाओं को स्वर देती है। उस रूपरेखा में दीवारें थीं, पर उनमें सांस लेने की जगह नहीं थी; अनुच्छेदों का अनुशासन था, पर नैतिक दिशा का आलोक नहीं था। डॉ. आंबेडकर और उनकी प्रारूप समिति ने इसी ठोस लेकिन निष्प्राण खाके में विचार, भावना और न्याय का रक्त प्रवाहित किया। उन्होंने उसमें समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के वे मूल्य जोड़े, जो भारतीय संविधान की आत्मा बने। उन्होंने उस भवन में केवल दरवाज़े नहीं लगाए, बल्कि हर नागरिक के लिए उसमें प्रवेश का अधिकार सुनिश्चित किया।
इस अर्थ में कहा जा सकता है कि राव ने ईंटें चुनकर रख दी थीं, पर भवन की आत्मा—उसका दर्शन, उसका लोकचेतना से संवाद—आंबेडकर ने दिया। राव का योगदान आधारशिला का था, जबकि आंबेडकर का योगदान उस आधार पर खड़ी पूरी इमारत का। इतिहास का न्याय यही कहता है कि हम दोनों की भूमिका को उनके वास्तविक आयाम में समझें—एक ने संरचना दी, दूसरे ने उसमें जीवन और दिशा भरी।
संविधान सभा की प्रारूप समिति, जिसकी अध्यक्षता डॉ. भीमराव आंबेडकर कर रहे थे, ने राव की प्रारंभिक रूपरेखा को आधार बनाते हुए एक जीवंत, न्यायसंगत और भारतीय सामाजिक यथार्थ से जुड़ा हुआ संविधान तैयार किया। आंबेडकर ने न केवल कानूनी ढाँचे को संवैधानिक गरिमा दी, बल्कि उसमें वह मानवीय और नैतिक तत्व जोड़े, जिनसे यह दस्तावेज़ केवल क़ानून नहीं रहा, बल्कि एक जीवंत दर्शन बन गया। उन्होंने कहा था—”राजनीतिक लोकतंत्र तभी स्थायी होगा जब सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना होगी।” यह वाक्य उस आत्मा को व्यक्त करता है, जो भारतीय संविधान के केंद्र में है।
डॉ. आंबेडकर के लिए संविधान केवल शासन की संरचना नहीं था; वह समाज को पुनर्गठित करने का साधन था। वे मानते थे कि संविधान तभी जीवित रहेगा जब उसमें निहित मूल्य नागरिकों के व्यवहार में उतरेंगे। उन्होंने ‘संवैधानिक नैतिकता’ की संकल्पना दी—जिसका अर्थ है कि सत्ता केवल कानून से नहीं, बल्कि न्याय और समता की भावना से संचालित हो। यही संवैधानिक नैतिकता भारतीय लोकतंत्र का नैतिक आधार बनी।
चार नवम्बर, 1948 को डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में अंतिम प्रारूप प्रस्तुत किया। इसके बाद लगभग एक वर्ष तक संविधान सभा में गहन विचार-विमर्श, संशोधन और बहसें चलीं। अंततः 26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा ने संविधान को स्वीकार किया—यह वह क्षण था जब भारत ने स्वयं को “हम, भारत के लोग” के रूप में परिभाषित किया। तो क्या यह कहना कि बी. एन. राव ही संविधान के “वास्तविक निर्माता” थे, ऐतिहासिक रूप से उचित है? नहीं। राव का योगदान निश्चित रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण था—उन्होंने विधिक ढाँचा दिया, तुलनात्मक अध्ययन किए, और प्रारंभिक दिशा प्रदान की। किंतु संविधान का जो जीवंत, मानवीय और न्यायपूर्ण रूप हमारे सामने आया, वह डॉ. आंबेडकर की वैचारिक दृष्टि, सामाजिक संवेदना और संविधान सभा के सामूहिक मंथन का परिणाम था। फिर भी यह प्रश्न उठता है कि आज अचानक बी. एन. राव के नाम को इस तरह क्यों उभारा जा रहा है? यह प्रवृत्ति केवल इतिहास की पुनर्स्थापना का प्रयास नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक पहचान की लड़ाई का हिस्सा है।
सोशल मीडिया और त्वरित सूचना की संस्कृति ने तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करना आसान बना दिया है। अधूरी जानकारी और भावनात्मक बयानबाज़ी मिलकर कई बार नया ‘इतिहास’ गढ़ देती है। जब किसी वक्ता ने कहा कि “संविधान बी. एन. राव ने बनाया, आंबेडकर ने केवल हस्ताक्षर किए,” तो वह कथन लाखों बार साझा हुआ और उसके विरोध में देशभर में आंदोलन हुए। यह इस बात का प्रमाण है कि संविधान पर विमर्श आज केवल अकादमिक विषय नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना का प्रश्न बन चुका है। राजनीतिक दृष्टि से भी यह विमर्श सुविधाजनक है। कुछ समूहों के लिए यह कहना कि संविधान का निर्माता कोई ऐसा व्यक्ति था जो ‘दलित चेतना’ से अलग था, एक विशेष राजनीतिक कथा को पुष्ट करता है। जबकि दूसरी ओर, आंबेडकर का नाम सामाजिक न्याय, समानता और दलित सशक्तिकरण का प्रतीक बन चुका है।
इसलिए उनके योगदान को चुनौती देना केवल इतिहास नहीं, बल्कि सामाजिक प्रतीकवाद को चुनौती देना है। इसलिए यह बहस भावनाओं से भी संचालित है और तथ्यों से भी। किंतु इतिहास को समझने का सबसे सच्चा तरीका यही है कि हम उसे संपूर्णता में देखें। बी. एन. राव की भूमिका निस्संदेह अद्भुत थी—उन्होंने भारत के संविधान को विधिक दृढ़ता दी, अंतरराष्ट्रीय दृष्टि दी और इसे तकनीकी रूप से सशक्त बनाया। वहीं डॉ. आंबेडकर ने उसे आत्मा दी—लोकतंत्र का दर्शन, समानता का मूल्य और स्वतंत्रता का आधार।
एक ने संविधान को रूप दिया, दूसरे ने उसे जीवन दिया—और यही दोनों मिलकर भारतीय गणराज्य की सबसे बड़ी शक्ति बने। संविधान की रचना किसी एक व्यक्ति का श्रम नहीं, बल्कि एक युग की चेतना का प्रस्फुटन थी। इसमें राव की बुद्धि है, आंबेडकर की दृष्टि है, नेहरू का आधुनिकता-बोध है, गांधी की नैतिकता की छाया है और उस आम भारतीय की आकांक्षा है जो समानता के आकाश में उड़ना चाहता था।
यही उस दस्तावेज़ की असली ताक़त है—यह हम सबका साझा सपना है। इतिहास का सम्मान केवल नारे से नहीं, संदर्भ से होता है। बी. एन. राव को उनका उचित सम्मान मिलना चाहिए—उनका कार्य किसी भी दृष्टि से कम नहीं था। लेकिन उनके योगदान को बढ़ाकर बाबा साहेब की भूमिका को कमतर आँकना, न केवल ऐतिहासिक रूप से गलत है बल्कि नैतिक दृष्टि से भी अनुचित है।
भारत का संविधान हमारे समय का सबसे महान साझा दस्तावेज़ है—और यह साझा भावना ही उसकी आत्मा है। राव ने संविधान को विधिक भाषा दी, किंतु बाबा साहेब ने उसे मनुष्य की भाषा दी। एक ने ढाँचा गढ़ा, दूसरे ने उसमें आत्मा भरी—और इसी संगम ने भारत को लोकतांत्रिक गणराज्य बनाया।
✍️ अखिल कुमार यादव












