उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र ने हाल ही में आए ‘मोंथा’ चक्रवात की बेरहम बारिश, बाढ़ और तेज हवाओं की मार झेली है। इस प्राकृतिक आपदा ने न केवल किसानों की मेहनत और जीवनयापन को प्रभावित किया, बल्कि पूरे कृषि-आधारित सामाजिक और आर्थिक ताने-बाने को हिला कर रख दिया। 28 अक्टूबर 2025 से शुरू हुआ यह बेमौसमी चक्रवाती प्रभाव लगातार बढ़ता गया और इसके दुष्परिणाम पूर्वांचल में कई दिनों तक दिखाई दिए। यह घटना स्पष्ट कर देती है कि मौसम और जलवायु परिवर्तन की अनिश्चितता अब केवल कृषि वैज्ञानिकों या नीति-निर्माताओं की चिंता नहीं, बल्कि किसानों के जीवन की सुरक्षा और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की स्थिरता का भी महत्वपूर्ण मुद्दा बन चुकी है।
‘मोंथा’ चक्रवात की उत्पत्ति बंगाल की खाड़ी से हुई। 26–27 अक्टूबर के बीच समुद्री सतह का तापमान सामान्य से अधिक था, जिससे वहां कम दबाव क्षेत्र विकसित हुआ। गर्म और नमी भरी हवा ऊपर उठी और यह प्रणाली 28 अक्टूबर को मजबूत होकर गहरे दबाव में बदल गई। इसके बाद यह चक्रवाती तंत्र उत्तर-पूर्व दिशा में बढ़ते हुए पूर्वी उत्तर प्रदेश तक पहुँच गया। मौसम विभाग के अनुसार, इसका प्रभाव 28 अक्टूबर की रात से शुरू हुआ, जबकि 29 अक्टूबर से 2 नवंबर के बीच यह तेज बारिश और हवाओं के रूप में चरम पर रहा। कई स्थानों पर हवा की रफ्तार 55–65 किमी/घंटा तक दर्ज की गई। 3–4 नवंबर तक इसका असर बादलों और रुक-रुककर होने वाली बारिश के रूप में जारी रहा। इस प्रकार, कुल मिलाकर पूर्वांचल में इसका प्रभाव लगभग 5–7 दिनों तक रहा, जिसने किसानों की महीनों की मेहनत को बुरी तरह प्रभावित किया। इस प्राकृतिक आपदा ने सबसे पहले धान, तिलहन, मटर और दलहन फसलों को झकझोर कर रख दिया। बस्ती, संतकबीरनगर सहित कई जिलों के किसानों के लिए यह घटना किसी बिजली गिरने जैसी थी। खेतों में खड़ी फसलें जलमग्न हो गईं, कटाई के लिए तैयार धान और मड़ाई के लिए रखी मटर व तिलहन सड़ने लगीं। उत्तर प्रदेश के अनेक जिलों में फसलें व्यापक रूप से प्रभावित हुईं। किसानों की मेहनत, पूंजी और आशा—तीनों बेमौसमी तूफान की मार के सामने बिखर गईं। अनेक किसान जिनकी फसल कटाई के अंतिम चरण में थी, अब अपने खेतों में गिरी हुई, सड़ी हुई और अनुपयोगी फसल देखकर स्तब्ध और निराश हैं। यह केवल व्यक्तिगत पीड़ा नहीं है; यह पूर्वांचल के हजारों परिवारों की साझा व्यथा का प्रतिबिंब है, जो कृषि पर निर्भर हैं। फसल-क्षति के साथ मिट्टी की गुणवत्ता भी प्रभावित हुई है। खेतों में अधिक नमी और जलभराव के कारण रबी फसलों की बुआई में बाधा आ रही है। अधिकांश किसान अपनी गेहूँ की बुवाई समय पर नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि मिट्टी अभी तक सुख नहीं पाई है। इसका परिणाम केवल तत्काल फसल-क्षति तक सीमित नहीं रहेगा; अगले सत्र की पैदावार, ग्रामीण आय और स्थानीय खाद्य-सुरक्षा पर भी गहरा असर पड़ेगा।
इस संकट की मार सबसे अधिक छोटे और सीमांत किसानों पर पड़ी है। जिनके पास फसल-बीमा नहीं है, वे पूरी तरह असुरक्षित हैं। बीमा-रहित किसानों के सामने भोजन, पशुचारा, पुनः बुवाई की लागत और कर्ज जैसी चुनौतियाँ भयावह रूप में खड़ी हैं। सामाजिक-आर्थिक प्रभाव स्पष्ट हैं—बढ़ता कर्ज, भूख की आशंका, बच्चों की शिक्षा प्रभावित होना और जीवन स्तर का गिरना। राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टि से भी यह घटना गंभीर चेतावनी है। राज्य सरकार ने प्रभावित जिलों में लेखपालों और सर्वे टीमों को फसल-क्षति का आकलन करने के निर्देश दिए हैं। हालांकि यह प्रक्रिया समय लेती है, लेकिन किसानों की स्थिति तुरंत राहत की माँग करती है। कई किसान शिकायत कर रहे हैं कि उनकी फसल खेतों में ही पड़ी सड़ रही है। देर से मिलने वाली राहत उनकी स्थिति को और विकट बना सकती है।
ऐसे समय में भारत का वह उदाहरण याद आता है जहाँ सफल, त्वरित और पारदर्शी राहत-व्यवस्था लागू की गई थी। मई, 2019 में चक्रवात “फणी” के बाद ओडिशा सरकार ने 48 लाख से अधिक लोगों को सुरक्षित आश्रय में पहुँचाया, गाँव-स्तर पर चेतावनी प्रणाली सक्रिय की, त्वरित राहत शिविर बनाए, मुफ्त राशन और चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध कराईं, और घरों व फसलों के नुकसान का त्वरित व पारदर्शी मुआवज़ा वितरण किया। संयुक्त राष्ट्र ने भी इसे वैश्विक मॉडल करार दिया। यह उदाहरण स्पष्ट करता है कि प्रशासनिक तत्परता और नीति-नियंत्रण से प्राकृतिक आपदाओं के प्रभाव को काफी हद तक कम किया जा सकता है। उत्तर प्रदेश भी इस मॉडल को अपनाकर किसानों की मदद को अधिक तेज, प्रभावी और भरोसेमंद बना सकता है। जलवायु और मौसम की अनिश्चितताओं के चलते यह स्पष्ट हो गया है कि पूर्वाभियोजन और नीति-तैयारी अपरिहार्य हैं। फसल-विविधीकरण, खेतों में जलनिकासी, मौसम-अनुकूल बुनियादी ढांचे और व्यापक फसल-बीमा कवरेज जैसी पहलें अब केवल सुझाव नहीं, बल्कि अनिवार्य उपाय बन गई हैं। भविष्य में इसी तरह की आपदाओं से निपटने के लिए किसानों को तैयार और सक्षम बनाना ही दीर्घकालिक समाधान है।
इसके साथ ही यह अनुभव बताता है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था और सामाजिक संरचना भी चक्रवाती आपदाओं से अत्यधिक संवेदनशील हैं। फसल-क्षति केवल आर्थिक नुकसान नहीं है; यह भूख, रोजगार, बच्चों की शिक्षा और जीवन स्तर तक सीधे असर डालती है। इस दृष्टि से केवल राहत और मुआवज़ा पर्याप्त नहीं हैं; किसानों को सामाजिक और मानसिक सुरक्षा का भरोसा भी दिया जाना चाहिए। पूर्वांचल सहित इसके प्रकोप से प्रभावित सभी क्षेत्रों के किसान इस समय उम्मीद और भय के बीच खड़े हैं—भय आर्थिक बर्बादी का, भूख का और भविष्य की अनिश्चितता का; और उम्मीद इस विश्वास की कि शासन और समाज उनकी मेहनत का मूल्य समझेगा और उन्हें इस संकट से बाहर निकालने में साथ देगा। यही समय है कि नीति-निर्माता और प्रशासन त्वरित राहत कार्यों के साथ-साथ भविष्य-तैयारी के ठोस उपाय भी लागू करें। यदि समयबद्ध राहत, पारदर्शी मुआवज़ा, व्यापक बीमा कवरेज और मौसम-अनुकूल कृषि-प्रणाली सुनिश्चित की जाती है, तो भविष्य में इस तरह की आपदाओं के प्रभाव को काफी हद तक कम किया जा सकता है। अन्यथा, किसानों का केवल आर्थिक नुकसान ही नहीं होगा; ग्रामीण अर्थव्यवस्था और स्थानीय खाद्य सुरक्षा भी खतरे में पड़ जाएगी।
निष्कर्षतः, ‘मोंथा’ चक्रवात न केवल एक प्राकृतिक आपदा है, बल्कि यह नीति, तैयारी और प्रशासनिक जवाबदेही का भी परीक्षण है। किसानों को त्वरित आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना, भविष्य के लिए उन्हें तैयार और सक्षम बनाना ही वास्तविक समाधान है। पूर्वांचल के किसान आज अपने खेतों में गिरती फसल, भीगती मटर और बहती नदियों के बीच संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन उनकी उम्मीद और संघर्ष की भावना ही उन्हें भविष्य के लिए खड़ा रखती है। यह समय है कि प्रशासन, नीति-निर्माता और समाज मिलकर इस संकट से सीख लें और कृषि-नीति, आपदा-प्रबंधन और ग्रामीण सुरक्षा को मजबूती दें।
✍️ अखिल कुमार यादव










