24 अक्टूबर, विश्व पोलियो दिवस, बीत चुका है, लेकिन इसका संदेश और इसका महत्व आज भी उतना ही जीवित है। यह दिन हमें याद दिलाता है कि कैसे एक छोटी सी कोशिश, दो बूंद टीके की, पूरी मानवता के लिए बड़ा परिवर्तन ला सकती है। पोलियो, जिसे बाल पक्षाघात भी कहा जाता है, एक समय दुनिया भर के बच्चों के लिए सबसे भयानक खतरा था। यह वायरस बच्चों की मांसपेशियों पर हमला करता, उन्हें स्थायी रूप से अपंग कर देता और कई बार उनकी जान भी ले लेता। इलाज नहीं था, केवल रोकथाम ही इसका उपाय था।
बीसवीं सदी के मध्य तक पोलियो का नाम सुनते ही परिवारों में डर फैल जाता था। बच्चे खेलते-खेलते, दौड़ते-भागते, अकस्मात ही लकवा या पक्षाघात की गिरफ्त में आ जाते। इस भय ने पूरे समाज को प्रभावित किया। लेकिन विज्ञान ने मानवता को आशा की किरण दी। 1955 में अमेरिकी वैज्ञानिक डॉ. जोनास सॉल्क ने पहली बार पोलियो वैक्सीन विकसित की। इसके बाद डॉ. अल्बर्ट सबिन ने ओरल पोलियो वैक्सीन तैयार की, जिसे केवल दो बूंद के रूप में दिया जा सकता था। यह छोटी सी मात्रा ही लाखों बच्चों को पोलियो से सुरक्षित करने के लिए पर्याप्त थी।
वर्ष 1988 में विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ, रोटरी इंटरनेशनल और यूएसए की प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य एजेंसी रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्र (CDC) ने मिलकर वैश्विक पोलियो उन्मूलन पहल (GPEI) की शुरुआत की। यह अब तक के इतिहास की सबसे बड़ी वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य पहल है। उस समय दुनिया में हर साल 3.5 लाख से अधिक बच्चे पोलियो के शिकार हो रहे थे।
यह अभियान मानव इतिहास के सबसे बड़े जनस्वास्थ्य अभियानों में से एक बन गया। जब दुनिया के कई देशों ने एकजुट होकर यह नारा दिया — “आइए दुनिया को पोलियो मुक्त बनाएं” — तब से लेकर आज तक इस लड़ाई ने असंख्य जीवन बचाए हैं।
भारत में पोलियो के खिलाफ संघर्ष लंबा और कठिन था। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और झारखंड जैसे राज्य पोलियो के गढ़ माने जाते थे। हर साल हज़ारों बच्चे पोलियो की चपेट में आते। 1995 में भारत सरकार ने पल्स पोलियो अभियान की शुरुआत की। नारा था, “दो बूंद ज़िंदगी की।”
यह नारा सिर्फ अभियान का प्रतीक नहीं था, बल्कि हर परिवार और हर बच्चे के लिए सुरक्षा का वादा बन गया। शुरुआत में चुनौती बहुत बड़ी थी। ग्रामीण इलाकों में अफवाहें, धार्मिक भ्रांतियाँ और टीका विरोधी मानसिकता ने अभियान की गति को प्रभावित किया। लेकिन स्वास्थ्यकर्मी, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, स्वयंसेवी और प्रशासनिक अधिकारी एकजुट होकर हर घर, हर गाँव और हर बच्चे तक टीका पहुँचाने के लिए आगे बढ़े।
कोई नाव पर बैठकर नदी पार करता, कोई पहाड़ी रास्ते से चलता, तो कोई पैदल गाँव-गाँव जाकर बच्चों को वैक्सीन देता — ताकि कोई भी बच्चा पोलियो की खुराक से वंचित न रह जाए। स्वास्थ्यकर्मियों की मेहनत और समर्पण अनूठा था। कड़ाके की सर्दी हो या तपती दोपहरी की धूप — उन्होंने हर परिस्थिति में बच्चों तक टीका पहुँचाया। कई बार उनके प्रयासों को कोई ताली नहीं मिली, कोई मंच नहीं मिला, लेकिन उन्होंने मानवता के लिए यह जंग जारी रखी।
यही नायकता थी जिसने भारत को पोलियो-मुक्त बनाने में निर्णायक भूमिका निभाई। जनवरी, 2011 में भारत ने आखिरी पोलियो केस दर्ज किया, और 27 मार्च, 2014 को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत को पोलियो-मुक्त देश घोषित किया। यह केवल एक स्वास्थ्य उपलब्धि नहीं थी; यह सामूहिक प्रयास, दृढ़ संकल्प और जनता की भागीदारी की जीत थी।
भारत जैसे विशाल और विविध देश में यह उपलब्धि असंभव मानी जा रही थी, लेकिन “दो बूंद ज़िंदगी की” ने इसे संभव कर दिखाया। विश्व पोलियो दिवस इस वर्ष भी बीत चुका है, लेकिन इसकी थीम “End Polio: Every Child, Every Vaccine, Everywhere” (पोलियो का अंत: हर बच्चा, हर टीका, हर जगह) ने देशभर में जागरूकता पैदा की। स्कूलों, कॉलेजों, अस्पतालों और ग्राम पंचायतों में विशेष कार्यक्रम आयोजित किए गए। बच्चों ने सांस्कृतिक प्रस्तुतियों के माध्यम से पोलियो के खतरे और टीकाकरण की महत्ता को उजागर किया। स्वास्थ्यकर्मियों और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का सम्मान किया गया, जिन्होंने वर्षों तक इस अभियान को जीवित रखा।
हालांकि भारत पोलियो-मुक्त घोषित हो चुका है, लेकिन सतर्कता की आवश्यकता अभी भी बनी हुई है। अफग़ानिस्तान और पाकिस्तान जैसे देशों में वायरस अब भी सक्रिय है, और किसी भी प्रकार की लापरवाही से यह खतरा भारत में भी लौट सकता है। इसलिए टीकाकरण को समय पर देना, हर बच्चे को पोलियो ड्रॉप की खुराक देना और अफवाहों से दूर रहना हर नागरिक की जिम्मेदारी है। पोलियो की कहानी केवल बीमारी और टीके तक सीमित नहीं है।
यह अभियान भारत के स्वास्थ्य तंत्र के लिए एक मॉडल बन गया। यह दिखाता है कि कैसे बड़े पैमाने पर जनभागीदारी, माइक्रो प्लानिंग और डोर-टू-डोर रणनीति के ज़रिए किसी बीमारी पर काबू पाया जा सकता है। इसी मॉडल का इस्तेमाल बाद में मलेरिया, खसरा-रुबेला, काली खाँसी और कोविड-19 टीकाकरण जैसे अभियान में भी किया गया। विश्व पोलियो दिवस हमें यह भी याद दिलाता है कि शिक्षा, जागरूकता और विज्ञान का सही मिश्रण ही किसी समाज को रोग मुक्त बना सकता है। हर माता-पिता की जिम्मेदारी है कि वे अपने बच्चों को टीकाकरण के लिए समय पर लेकर जाएँ।
अफवाहों और झूठी खबरों से बचें, और दूसरों को भी सही जानकारी दें। केवल तभी हम पोलियो-मुक्त विश्व की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। हर बूथ पर बच्चे को दो बूंद देने वाली माँ की मुस्कान केवल एक टीका नहीं, बल्कि भविष्य की सुरक्षा का प्रतीक है। यही संदेश विश्व पोलियो दिवस का असली सार है। भारत की यह सफलता आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा है, और यह हमें सतर्क रहने और दूसरों को जागरूक करने की याद दिलाती है।
विश्व पोलियो दिवस बीत चुका है, लेकिन इसका संदेश आज भी गूंज रहा है। यह हमें याद दिलाता है कि मानवता जब एकजुट होती है, तो सबसे कठिन चुनौतियाँ भी मात खा जाती हैं। भारत ने जो उपलब्धि हासिल की, वह केवल आंकड़े नहीं, बल्कि हर बच्चे की मुस्कान, हर माता-पिता की राहत और हर स्वास्थ्यकर्मी की मेहनत का परिणाम है। अब जरूरत है कि यह जीत स्थायी बनाई जाए।
“दो बूंद ज़िंदगी की” केवल एक नारा नहीं, बल्कि एक संकल्प और वादा है जिसे हमें हर दिन निभाना है। जब तक पृथ्वी पर एक भी बच्चा पोलियो के खतरे में है, तब तक यह लड़ाई अधूरी है। और यही वादा, यही चेतना, यही जिम्मेदारी — विश्व पोलियो दिवस के बीत जाने के बाद भी हमें याद रहती है।
यह कहानी न केवल पोलियो की है, बल्कि यह मानवता, विज्ञान, समर्पण और जागरूकता की भी है। यह दिखाती है कि जब समाज और सरकार मिलकर काम करते हैं, तो किसी भी बीमारी को मात दी जा सकती है। बीते विश्व पोलियो दिवस ने फिर से यह संदेश दिया कि हर बूंद कीमती है, हर प्रयास मूल्यवान है, और हर जीवन की रक्षा हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए।
✍️ अखिल कुमार यादव
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