गांधीजी के तीन बंदर : आज के दौर में उनकी प्रासंगिकता

आजादी के बाद से ही 2 अक्तूबर की सुबह भारत के लिए हमेशा विशेष रही है। यह वह दिन है जब हम राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को याद करते हैं। विगत सप्ताह के बृहस्पतिवार को उनकी 156वीं जयंती मनाई गई। मौसम की ठंडी बयार में गांधीजी की प्रार्थना सभाएँ, राजघाट पर पुष्पांजलि और देशभर के विद्यालयों में गाए गए भजन माहौल को आध्यात्मिक बना देते हैं। परंतु इस वर्ष भी, पहले की तरह, एक प्रश्न मन में उठता रहा—क्या हम गांधीजी को केवल श्रद्धांजलि देने की रस्म तक सीमित कर चुके हैं या वास्तव में उनके विचारों को जीवन में उतार भी रहे हैं? यही प्रश्न गांधीजी के प्रिय प्रतीक—तीन बंदरों—को और भी गहरी प्रासंगिकता देता है।

गांधीजी का जीवन जितना सरल दिखता था, उतना ही बहुआयामी था। वे केवल राजनीतिक स्वतंत्रता की लड़ाई के नेता नहीं थे, बल्कि एक दार्शनिक, चिंतक और समाज-सुधारक भी थे। उनके लिए स्वतंत्रता का अर्थ केवल शासन परिवर्तन नहीं था, बल्कि समाज की आत्मनिर्भरता, नैतिक शुद्धता और व्यक्ति की अंतरात्मा की आज़ादी भी थी। उन्होंने चरखे को प्रतीक बनाया, खादी को अपनाया और ग्राम स्वराज की परिकल्पना की। उनके लिए गाँव भारत की आत्मा थे और आत्मनिर्भर गाँव ही मज़बूत भारत की नींव रख सकते थे। परंतु गांधीजी ने केवल बड़े प्रतीकों तक ही खुद को सीमित नहीं किया। उन्होंने ऐसे छोटे प्रतीकों को भी जीवन में जगह दी, जो आम लोगों तक सहजता से पहुँच सकें। इन्हीं में से एक प्रतीक है—तीन बंदरों का छोटा-सा समूह।

किसी बच्चे से पूछ लीजिए कि गांधीजी के तीन बंदर कौन हैं, वह तुरंत बता देगा—एक आँखों पर हाथ रखे है, दूसरा कानों पर और तीसरा मुँह पर। उनका संदेश है—बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत बोलो। यह तीनों बातें इतनी सरल लगती हैं कि कोई भी इन्हें तुरंत समझ सकता है। शायद यही उनकी ताक़त भी है। गांधीजी के अनुसार सच्चे नैतिक मूल्य वही होते हैं जिन्हें आम आदमी भी समझ सके और अपने जीवन में अपना सके। तीन बंदरों की कहानी भारत की नहीं है, बल्कि इसकी जड़ें पूर्वी एशिया में हैं। इतिहासकार बताते हैं

कि इनका संबंध चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस की शिक्षाओं से है। बाद में यह विचार जापान पहुँचा और वहाँ इसे शिंतो और बौद्ध परंपराओं ने आत्मसात किया। जापान के निको शहर में स्थित तोशोगु मंदिर की सत्रहवीं शताब्दी की लकड़ी की नक्काशी में इन तीन बंदरों का प्रसिद्ध चित्रण मिलता है। यह स्थल आज यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल है। जापानी संस्कृति में इन्हें “बुद्धिमान बंदर” कहा जाता है और यह आचार-संहिता का हिस्सा माने जाते हैं। गांधीजी तक यह प्रतीक कैसे पहुँचा, इसके बारे में अलग-अलग कथाएँ हैं। कुछ मानते हैं कि चीन से आए एक प्रतिनिधिमंडल ने गांधीजी को यह भेंट दिया था। लेकिन अधिक प्रामाणिक तथ्य यह बताते हैं कि जापानी बौद्ध संत निचिदात्सु फुजी 1933 में वर्धा आश्रम में गांधीजी से मिलने आए और उन्होंने यह छोटा-सा सेट गांधीजी को दिया। गांधीजी इस उपहार से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने जीवनभर इसे अपने पास संभालकर रखा।

गांधीजी के जीवन में निजी वस्तुएँ बहुत कम थीं। वे सादगी के प्रतीक थे। ऐसे में यह तथ्य और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि उन्होंने इस छोटे-से सेट को जीवनभर संजोकर रखा। यह बताता है कि इस प्रतीक का उनके जीवन-दर्शन में कितना महत्व था। उनकी मृत्यु के बाद इन बंदरों को संग्रहालयों में सुरक्षित कर लिया गया। आज राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय (राजघाट, नई दिल्ली) के साथ-साथ साबरमती और सेवाग्राम आश्रम में भी इन्हें देखा जा सकता है।

गांधीजी ने तीन बंदरों को केवल एक मूर्ति के रूप में नहीं देखा। उनके लिए यह जीवन का नियम था। पश्चिमी समाज में कभी-कभी “बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो” का अर्थ पलायनवाद या बुराई से आँख मूँद लेना समझा जाता है। लेकिन गांधीजी के लिए इसका अर्थ बिल्कुल अलग था। उनके लिए “बुरा मत देखो” का मतलब था—अन्याय, हिंसा, लालच या अनैतिकता को आकर्षण की दृष्टि से न देखना। “बुरा मत सुनो” का अर्थ था—नफ़रत, अफवाह और झूठ को अपने भीतर जगह न देना। और “बुरा मत बोलो” का अर्थ था—कटु, अपमानजनक और हिंसक भाषा से परहेज़ करना। उनके लिए यह सजगता का प्रतीक था, न कि पलायन का।

याद कीजिए कि गांधीजी ने अपने आंदोलनों में भी यही संयम अपनाया। असहयोग आंदोलन, दांडी मार्च या भारत छोड़ो आंदोलन—हर जगह उन्होंने हिंसा का मार्ग अस्वीकार किया। यहाँ तक कि जब लोगों के भीतर गुस्सा और विद्रोह का ज्वार उमड़ता था, तब भी वे अहिंसा और संयम पर ज़ोर देते थे। यह संयम ही उनकी सबसे बड़ी शक्ति बना। अंग्रेज़ सरकार को यह समझ ही नहीं आया कि हथियारबंद आंदोलन से लड़ना आसान है, लेकिन गांधी के सत्याग्रह से कैसे निपटा जाए? यह अहिंसक शक्ति उसी नैतिक दृढ़ता से जन्मी थी जिसे तीन बंदर संक्षेप में व्यक्त करते हैं। आज जब हम गांधीजी की जयंती के कुछ दिन बाद पीछे मुड़कर देखते हैं, तो पाते हैं कि तीन बंदरों का संदेश पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो चुका है। हमारे चारों ओर नकारात्मकता और हिंसा की ध्वनियाँ बढ़ गई हैं। सोशल मीडिया पर फैलती झूठी खबरें और नफ़रत भरी भाषा हमारे कानों तक पहुँचती हैं।

अपराध और हिंसा की सनसनीखेज़ खबरें हमारी आँखों को आकर्षित करती हैं। राजनीति और समाज में अपमानजनक भाषा का बोलबाला बढ़ता जा रहा है। ऐसे समय में गांधीजी का यह संदेश बहुत गहरा है—बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत बोलो। इसका मतलब यह नहीं कि अन्याय देखकर चुप बैठ जाएँ। गांधीजी कभी भी अन्याय के प्रति मौन रहने के पक्षधर नहीं थे। उनके लिए चुप्पी भी एक तरह का पाप थी। उन्होंने कहा था कि “अहिंसा कायरों का हथियार नहीं, बल्कि वीरों का शस्त्र है।” इसका अर्थ यही है कि अन्याय के खिलाफ़ खड़े होना ज़रूरी है, लेकिन बुराई को देखकर उससे प्रभावित न होना, बुराई को सुनकर उसे अपने भीतर न आने देना और बुराई को बोलकर उसका प्रचार न करना—यही असली संदेश है। यदि हम इसे आज के संदर्भ में देखें, तो यह और भी आवश्यक हो उठता है। राजनीति में भाषा का गिरता स्तर हमें बताता है कि “बुरा मत बोलो” कितना ज़रूरी है।

सोशल मीडिया की अफवाहें हमें यह सिखाती हैं कि “बुरा मत सुनो” का पालन क्यों आवश्यक है। और उपभोक्तावाद व हिंसक मनोरंजन के बढ़ते आकर्षण हमें याद दिलाते हैं कि “बुरा मत देखो” आज का सबसे बड़ा आत्म-संयम है। गांधीजी के तीन बंदर हमें यह भी बताते हैं कि समाज का सुधार केवल बड़े-बड़े घोषणापत्रों से नहीं होगा। इसके लिए हमें अपने रोज़मर्रा के व्यवहार से शुरुआत करनी होगी। यदि हम अपनी आँखों, कानों और वाणी पर संयम रख सकें, तो यह व्यक्तिगत ही नहीं बल्कि सामाजिक बदलाव की दिशा में बड़ा कदम होगा। गांधीजी ने जीवनभर यही दिखाया कि परिवर्तन की शुरुआत व्यक्ति से होती है और वही धीरे-धीरे समाज और राष्ट्र तक पहुँचता है।

आज जब दुनिया हिंसा, असहिष्णुता और नैतिक पतन से जूझ रही है, तब गांधीजी की यह सीख और भी आवश्यक हो जाती है। उनकी जयंती मनाना केवल पुष्पांजलि अर्पित करने का कार्य नहीं होना चाहिए, बल्कि यह अवसर होना चाहिए कि हम उनके विचारों को अपने जीवन में उतारें। गांधीजी और उनके तीन बंदर हमें यही याद दिलाते हैं कि सरलता में भी गहरी शक्ति छुपी होती है। यदि हम इस शक्ति को समझ लें और जीवन में उतार लें, तो न केवल हमारा समाज बेहतर बनेगा, बल्कि हम गांधीजी को सच्ची श्रद्धांजलि भी दे पाएँगे।

गांधीजी ने कहा था—”आप वह परिवर्तन बनिए जो आप दुनिया में देखना चाहते हैं।” तीन बंदर यही कहते हैं कि अपने दृष्टि, श्रवण और वाणी से शुरुआत कीजिए। जब व्यक्ति बदलता है तो समाज बदलता है, और जब समाज बदलता है तो राष्ट्र की दिशा बदलती है। यही गांधीजी की सबसे बड़ी विरासत है।

✍️ अखिल कुमार यादव

Bindesh Yadav
Bindesh Yadavhttps://newsxpresslive.com
I am an experienced Android and web developer with a proven track record of building robust and user-friendly applications for organizations, schools, industries, and commercial use. I specialize in creating dynamic and responsive websites as well as scalable Android apps tailored to specific business needs. I hold a Master of Computer Applications (MCA) from (IGNOU), and a Bachelor of Science (Honours) in CS fromDU I strongly believe in growth through learning and resilience. "Stop worrying about what you've lost. Start focusing on what you've gained."

Related Articles

- Advertisement -

.

softdigi technology website development

Latest Articles