संघर्ष से सत्ता तक – कांशीराम और मुलायम सिंह की साझी यात्रा

भारतीय राजनीति में कुछ तिथियाँ केवल कैलेंडर पर अंकित दिन नहीं होतीं, बल्कि वे इतिहास के गहरे संदेश लेकर आती हैं। ऐसा ही संयोग है 9 और 10 अक्टूबर का। 9 अक्टूबर को हम मान्यवर कांशीराम जी का परिनिर्वाण दिवस मनाते हैं और ठीक उसके अगले दिन 10 अक्टूबर को समाजवादी आंदोलन के पुरोधा और उत्तर प्रदेश की राजनीति के धुरंधर नेता मुलायम सिंह यादव की पुण्यतिथि आती है। यह मात्र तिथियों का मेल नहीं है, बल्कि उन दो महापुरुषों की साझा राजनीतिक यात्रा और सामाजिक न्याय की लड़ाई का स्मरण है,

जिन्होंने उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि पूरे देश की राजनीति को गहरे तक प्रभावित किया। कांशीराम जी ने दलितों, पिछड़ों और वंचितों को संगठित कर उनकी शक्ति का अहसास कराया, जबकि मुलायम सिंह यादव ने किसान-पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों को संगठित कर समाजवादी राजनीति की धारा को जीवित रखा। दोनों की राजनीति का मूल आधार सामाजिक न्याय और समानता था। जब ये दो धाराएँ एक बिंदु पर आकर मिलीं, तो उत्तर प्रदेश की राजनीति में ऐसा भूचाल आया जिसने परंपरागत जातीय-सामंती राजनीति की जड़ें हिला दीं। यही कारण है कि जब भी 9 और 10 अक्टूबर आते हैं, तो हमें यह याद दिलाते हैं कि कांशीराम और मुलायम का साथ केवल चुनावी समझौता नहीं था, बल्कि दलित-पिछड़ा एकता का ऐतिहासिक अध्याय था। इस संयोग का एक और गहरा संदेश है—दोनों नेताओं ने अपने-अपने तरीके से वंचित समाज को यह सिखाया कि अगर वे संगठित हों, तो सत्ता के गलियारों तक उनकी आवाज़ पहुँच सकती है। इसलिए इन तिथियों का समीप आना हमें यह याद दिलाता है कि संघर्ष और एकता, दोनों मिलकर ही सामाजिक परिवर्तन की गारंटी बनते हैं।

मान्यवर कांशीराम जी का जीवन संघर्ष और संगठन का जीवन था। वे मानते थे कि “राजनीतिक सत्ता ही सामाजिक बदलाव की असली कुंजी है।” यही कारण है कि उन्होंने बहुजन समाज को संगठित करने के लिए क्रमशः आंदोलन और संगठन खड़े किए। सबसे पहले उन्होंने डीएस-4 (दलित शोषित समाज संघर्ष समिति) बनाई। उस समय उनका नारा गूंजा – “DS4 का नारा है, भारत देश हमारा है।” यह नारा केवल आत्मसम्मान का उद्घोष नहीं था, बल्कि शोषित समाज को पहली बार यह विश्वास दिलाने वाला संदेश था कि यह देश सबका है

और उसमें उनकी बराबरी की हिस्सेदारी है। डीएस-4 के बाद कांशीराम जी ने बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की स्थापना की। उनकी राजनीति का केंद्रीय सूत्र था – “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।” इस नारे ने सदियों से वंचित समाज को सत्ता में भागीदारी का आत्मविश्वास दिया। उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि जब तक बहुजन समाज अपने मत को संगठित करके एक दिशा में नहीं लगाएगा, तब तक उनका राजनीतिक और सामाजिक सशक्तिकरण संभव नहीं।

दूसरी ओर, मुलायम सिंह यादव किसान, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समाज की आवाज़ थे। वे डॉ. राममनोहर लोहिया की समाजवादी परंपरा से निकले और राजनीति में अपनी मेहनत, संघर्ष और सादगी से शीर्ष पर पहुँचे। 1989 में जब वे पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने पिछड़ों के बीच यह संदेश दिया कि सत्ता में उनकी भी मजबूत हिस्सेदारी हो सकती है।

1990 का दशक भारतीय राजनीति में बड़े बदलावों का दौर था। एक ओर मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हो रही थीं, जिससे पिछड़ों को आरक्षण का अधिकार मिला। दूसरी ओर राम मंदिर आंदोलन ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा दिया। यह समय वह था जब सामाजिक न्याय की राजनीति को एक नई धारा देने की आवश्यकता थी। इसी समय मुलायम सिंह यादव और कांशीराम जी की राहें एक दूसरे से मिलीं। यही वह दौर था जब मान्यवर कांशीराम जी के ही सुझाव पर नेताजी मुलायम सिंह यादव ने 4 अक्टूबर, 1992 को समाजवादी पार्टी का गठन किया। इस तरह यह पार्टी केवल एक संगठनात्मक पहल नहीं थी, बल्कि बहुजन और समाजवादी विचारधारा के सम्मिलन का परिणाम थी, जिसने उत्तर प्रदेश की राजनीति को नई दिशा दी।

इसके बाद 1993 में इतिहास बनाने वाला गठबंधन सामने आया— समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का गठबंधन। यह गठबंधन केवल राजनीतिक समीकरण नहीं था, बल्कि दलितों और पिछड़ों की साझा ताक़त का घोषणापत्र था। उस वक़्त पूरे प्रदेश में एक ही नारा गूंज रहा था – “मिले मुलायम-कांशीराम, हवा हो गए जय श्रीराम।” इस नारे ने भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति के बरक्स सामाजिक न्याय और एकता की नई परिभाषा दी।इस गठबंधन ने उत्तर प्रदेश की राजनीति को पूरी तरह बदल दिया। पहली बार दलितों और पिछड़ों ने यह महसूस किया कि उनकी साझेदारी ही सत्ता का भविष्य तय कर सकती है। भाजपा की लहर और राम मंदिर आंदोलन की आंधी के बावजूद यह गठबंधन सत्ता तक पहुँचा और मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने। यह लोकतंत्र में बहुजन और पिछड़ों की जीत का ऐतिहासिक क्षण था।

इतना ही नहीं, मुलायम सिंह यादव ने मान्यवर कांशीराम को पहली बार अपने गृह जनपद के इटावा सुरक्षित लोकसभा क्षेत्र से वर्ष 1991 के आम चुनाव संसद सदस्य बनाकर देश के सबसे बड़े सदन में भेजा। यह कदम केवल एक चुनावी निर्णय नहीं था, बल्कि बहुजन नेतृत्व को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने का प्रतीक था। इससे यह संदेश गया कि बहुजन समाज का नेतृत्व अब केवल विधानसभा तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में भी उसकी मजबूत उपस्थिति होगी।

कांशीराम जी और मुलायम सिंह यादव का साथ भले ही लंबे समय तक नहीं चला, लेकिन इसका प्रभाव बहुत गहरा रहा। 1993 का यह गठबंधन ही वह टर्निंग प्वाइंट था, जिसने दलितों और पिछड़ों को यह सिखाया कि अगर वे संगठित होकर अपनी ताक़त दिखाएँ, तो सत्ता में उनकी भी बराबरी की भागीदारी हो सकती है। मान्यवर कांशीराम जी ने बहुजन आंदोलन को ऊर्जा देने के लिए जो नारे गढ़े, वे आज भी प्रेरणा का स्रोत हैं। उनके नारों ने न केवल समाज को जागरूक किया, बल्कि राजनीति को नई दिशा दी। “वोट हमारा, राज तुम्हारा – नहीं चलेगा, नहीं चलेगा”, “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी”, “अब बहुजन की बारी है,

21वीं सदी हमारी है” जैसे नारों ने बहुजन समाज को आत्मविश्वास और जागरूकता दी। यह केवल नारे नहीं थे, बल्कि सामाजिक परिवर्तन के घोषणापत्र थे। जब हम 9 और 10 अक्टूबर को साथ-साथ देखते हैं, तो यह हमें यह समझने पर मजबूर करता है कि यह तिथियाँ संयोग से अधिक प्रतीक हैं। कांशीराम ने बहुजन समाज को जगाने का काम किया, तो मुलायम सिंह यादव ने पिछड़े और किसानों को संगठित कर उनकी आवाज़ को राजनीतिक जमीन दी। दोनों ने मिलकर यह साबित कर दिया कि अगर समाज का वंचित वर्ग एकजुट हो जाए, तो इतिहास की धारा को मोड़ा जा सकता है।

आज जब हम मान्यवर कांशीराम जी को उनके निर्माण दिवस पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, तो हमें उनके उस योगदान को याद करना चाहिए, जिसने सामाजिक न्याय की लौ जलाकर लाखों-करोड़ों वंचितों को सम्मान दिलाया। उसी तरह जब हम मुलायम सिंह यादव की पुण्यतिथि पर उन्हें याद करते हैं, तो यह स्वीकार करना चाहिए कि उन्होंने कांशीराम की विचारधारा को राजनीतिक ज़मीन दी और उत्तर प्रदेश की राजनीति में सामाजिक न्याय की नींव को मज़बूत किया। इन दोनों नेताओं की विरासत हमें यही सिखाती है

कि सत्ता का असली अर्थ केवल कुर्सी पर काबिज़ होना नहीं, बल्कि वंचित समाज को उसका हक़ और सम्मान दिलाना है। कांशीराम और मुलायम का यह ऐतिहासिक सहयोग भारतीय राजनीति में सामाजिक न्याय की सबसे मज़बूत धारा के रूप में हमेशा याद किया जाएगा।

मान्यवर कांशीराम जी और नेताजी मुलायम सिंह यादव को विनम्र श्रद्धांजलि – आपकी साझा विरासत ही सामाजिक न्याय का सबसे बड़ा अध्याय है।

✍️ अखिल कुमार यादव

Bindesh Yadav
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