जब सन् 1893 में स्वामी विवेकानंद शिकागो के विश्व धर्म महासभा (World’s Parliament of Religions) में सहस्रों श्रोताओं के समक्ष खड़े हुए, तो उनके प्रारंभिक शब्द “Sisters and Brothers of America” मात्र एक सामान्य औपचारिक अभिवादन नहीं थे, अपितु वे आत्मीय एकता की एक सशक्त भावना थी, एक मौन क्रांति का उद्घोष थे। इन्हीं शब्दों के माध्यम से उन्होंने एक पुरातन भारतीय आध्यात्मिक परंपरा को वैश्विक संवाद में सम्मिलित करना प्रारंभ किया एवं अभिन्न अंग बना दिया।। जो कुछ उसके पश्चात् हुआ, वह केवल एक भाषण नहीं था – वह एक जागरण का क्षण था। उसी घड़ी में योग ने भारतीय उपमहाद्वीप की आध्यात्मिक साधना से आंतरिक एवं बाह्य दोनों स्तरों पर समरसता की दिशा में सामंजस्य के एक सार्वभौमिक मार्ग में अपना रूपांतरण आरंभ किया।
स्वामी विवेकानंद जी ने योग को किसी रहस्यात्मक या अपरिचित अनुष्ठान के रूप में प्रस्तुत नहीं किया, अपितु उन्होंने इसे मानवी जीवन के बोध, उन्नयन और आत्माविष्कार की पद्धति के रूप में वर्णित किया – यह मनोविज्ञान (science of the mind), नैतिक जीवनयापन का निर्देश पथ और अंतर्निहित दिव्यता को प्रकट करने की एक पद्धति/प्रणाली थी। यह व्यायाम, शरीराभ्यासरूप के रूप में योग नहीं था, बल्कि आत्मा की यात्रा का एक दिग्दर्शन, एक सर्वांगीण मानचित्र था।
उन्होंने मानवता को जाति, नस्ल, मजहब , विचारधारा या भूगोल से विभाजित न मानकर, एक साझा आध्यात्मिक कुटुंब के रूप में देखा। उनके संदेश का मूलाधार एक अत्यन्त सरल किंतु क्रांतिकारी सत्य था, “Each soul is potentially divine. The goal is to manifest this divinity by controlling nature, external and internal” (विवेकानंद, 1958)। उनके समग्र वाङमय में पाए जाने वाले ये शब्द केवल तत्त्वमीमांसीय विचार नहीं थे, वरन् वे आंतरिक उत्कर्ष और वैश्विक करुणा, सहानुभूति के लिए कर्म का स्पष्ट आह्वान थे।
विवेकानंद जी ने योग के चार पथों – राज, कर्म, भक्ति और ज्ञान के संश्लेषण(synthesis) द्वारा उन्होंने इस सनातन ज्ञान को विविध प्रकृति के व्यक्तियों हेतु सुलभ बनाया। अनेक मार्गों की व्यवस्था करके उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति की अनूठी प्रकृति को स्वीकार किया। कुछ लोग ध्यान और मानसिक अनुशासन (राजयोग) की ओर आकर्षित होंगे, कुछ सेवा और निष्काम कर्म (कर्मयोग) की ओर, तो कुछ प्रेम और भक्ति (भक्तियोग) या बौद्धिक अन्वेषण (ज्ञानयोग) की ओर होंगे। इस लचीली पद्धति ने योग को केवल वनवासियों, गुहाओं में निवास करने वाले संन्यासियों, वनप्रस्थियों के लिए ही नहीं, बल्कि सर्वत्र के विद्यार्थियों, श्रमिकों, कलाकारों और जिज्ञासुओं के लिए भी सुलभ, ग्राह्य बना दिया।
परंतु, जिस बात ने उनके दृष्टिकोण को क्रांतिकारी बनाया, वह केवल उनकी समावेशी भावना नहीं थी, अपितु वह उनकी बौद्धिक स्पष्टता थी। उन्होंने विज्ञान और तर्क की भाषा में बात की, किसी कट्टर मतवाद की बात नहीं की । उन्होंने लोगों को स्वयं इन विचारों को परखने, कसौटी पर कसने का निमंत्रण दिया। उनके शब्दों में “Religion is realization; not talk, nor doctrine, nor theories however beautiful they may be. It is being and becoming, not hearing, or acknowledging; it is the whole soul becoming what it believes” (विवेकानंद, 1958)। इस प्रकार विवेकानंद जी ने अध्यात्म और विज्ञान के मध्य, श्रद्धा और अनुभव के मध्य सेतु का कार्य किया। सन् 1896 में प्रकाशित उनकी सुप्रसिद्ध कृति राजयोग में, उन्होंने महर्षि पतञ्जलि के सिद्धान्तों को तार्किक एवं क्रमबद्ध रीति से प्रतिपादित किया, जो विशेषतः पाश्चात्य पाठकों के लिए ग्राह्य और प्रासंगिक सिद्ध हुई। यह योग चिन्तनशील मन , मस्तिष्क और जिज्ञासु हृदय के लिए था।
उस काल में जब भारत को बहुधा अंधविश्वास की भूमि के रूप में देखा जाता था, स्वामी विवेकानन्द ने निर्भीक होकर इसकी आध्यात्मिक परम्पराओं को परिष्कृत, विचारशील तथा अत्यन्त मानवीय रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने भारत की छवि को अभाव से हटाकर आत्मबोध और गहन एवं प्रखर प्रज्ञा की भूमि के रूप में रूपान्तरित किया। तथापि वह यहीं नहीं रुके, स्वदेश लौटकर उन्होंने सामाजिक अन्याय, जाति-पाति की विषमता, भेदभाव , धार्मिक एवं आध्यात्मिक जड़ता, कट्टरता (fanaticism), मतान्धता (dogmatism), हठधर्मिता (bigotry), और संप्रदायवाद (sectarianism) को चुनौती दी। वहीं कर्मयोग के माध्यम से उन्होंने सेवा को दान न मानकर, प्रत्येक प्राणी में परमात्मा की उपस्थिति के बोध के रूप में स्थापित किया एवं दूसरों की सेवा करने के लिए प्रेरित किया
उनका दृढ़ मत “It is a privilege to serve mankind, for this is the worship of God; God is here, in all these human souls. He is the soul of man” (विवेकानंद, 1958) एवं उद्घोष था कि “He who sees Shiva in the poor, in the weak, and in the diseased, really worships Shiva” (विवेकानंद, 1958) इस प्रकार उन्होंने आध्यात्मिक संलग्नता के एक नूतन स्वरूप की आधारशिला रखी – ऐसा स्वरूप जो संसार से पलायन नहीं करता, अपितु इसके भीतर ही रहकर उपचार, उद्धार एवं उत्थान का कार्य करता है।
वह भलीभाँति जानते थे, कि केवल विचार पर्याप्त नहीं हैं। योग के संदेश को स्थायी बनाने के लिए उन्होंने भारत में रामकृष्ण मिशन और विदेशों में वेदान्त सोसाइटीज़ (Vedanta Societies) जैसी संस्थाओं की स्थापना की।
ये संस्थाएँ केवल दर्शनशास्त्र का शिक्षण न होकर, कर्म, ध्यान, अध्ययन एवं सेवा के समन्वित जीवंत स्थान बनाकर एक सूत्र में पिरोए गए।
आज योग संसार के लगभग प्रत्येक कोने में अभ्यासित हो रहा है। लोग स्वास्थ्य, तनावमुक्ति या आध्यात्मिक संबंध के लिए योगासन करते हैं। किंतु इन बाहरी गतिविधियों के नीचे वह गहरा तत्त्व निहित है, जिसे विवेकानंद जी ने पश्चिम को दिया था – कि योग केवल शरीर की लचक का विषय नहीं, बल्कि मन की लचक और हृदय की व्यापकता का विषय है। आधुनिक विज्ञान (Modern science), ध्यान (meditation), माइण्डफुलनेस (mindfulness) एवं न्यूरोप्लास्टिसिटी (neuroplasticity) पर अनुसन्धान द्वारा, आज भी उनके शिक्षाप्रद सिद्धान्तों की पुष्टि कर रहा है,कि मनुष्य का चित्त अनुशासन के माध्यम से परिवर्तित, समन्वित एवं विकसित हो सकता है।
इस दृष्टि से विवेकानंद जी अपने समय से एक शताब्दी आगे थे। उन्होंने चेतना के विषय में तब बात की जब यह वैज्ञानिक जिज्ञासा (scientific inquiry) का विषय भी नहीं बना था। वह समझते थे, कि योग कोई सांस्कृतिक अवशेष नहीं, बल्कि परिवर्तन की एक जीवंत, श्वासमान शक्ति है। उन्होंने इसे केवल भारत की निधि के रूप में नहीं, बल्कि मानवता की साझा विरासत के रूप में प्रस्तुत किया।
सन् 2014 में, संयुक्त राष्ट्र संघ(UNO) द्वारा अंतरराष्ट्रीय योग दिवस (International Yoga Day) को मान्यता प्रदान करना किसी प्राचीन परम्परा की मात्र सम्मान अथवा स्वीकृति नहीं, अपितु उन बीजों का उत्सव है, जिन्हें स्वामी विवेकानन्द ने शताब्दी पूर्व बोया था। वैश्विक ‘वेलनेस ट्रेंड्स’ एवं ‘माइंडफुलनेस ऐप्स’ के अनुप्रयोगों से बहुत पहले, एक संन्यासी, गैरिक वस्त्रों में अमेरिका की गलियों में विचरता था, सभागारों में आत्मा, मन तथा समस्त जीवन की एकता का सन्देश देता था।
स्वामी विवेकानन्द का ओजस्वी स्वर आज भी गुंजायमान है, वह प्रत्येक कक्षा-कक्ष में गूंजता है, जहाँ योग सिखाया जाता है, प्रत्येक घर में जहाँ मौन प्रार्थना में दीप जलाया जाता है, करुणा के प्रत्येक कार्य में जो तथाकथित अपरिचित, पराये में भी दिव्यता का दर्शन करता है। उनके शब्द “Arise, awake, and stop not till the goal is reached” [1] (विवेकानंद, 1958) अतीत के अवशेष नहीं, बल्कि भविष्य के मार्गदर्शक हैं।
इस ‘अंतरराष्ट्रीय योग-दिवस’के पावन’ अवसर पर स्वामी विवेकानंद का स्मरण करते हुए, हम यह स्मरण करते हैं और समस्त लोगों को स्मरण कराएं कि योग की सच्ची साधना मांसपेशियों से नहीं, चित्त से प्रारम्भ होती है और यह साधना जग से दूर नहीं, अपितु समष्टि की आत्मीयता में ले जाती है। उनकी विरासत पूजा की वस्तु नहीं अपितु जीवन की विधि है।
सन्दर्भ सूची
विवेकानन्द, स्वामी. (1958). द कम्प्लीट वर्क्स ऑफ स्वामी विवेकानन्द (खंड 1–9). अद्वैता आश्रम. (मूल कृति 1907 में प्रकाशित).श्रोत : http://ramakrishnavivekananda.info/vivekananda/complete_works.htm
– संतोष कुमार दिवाकर
विद्यावाचस्पति शोधार्थी
शिक्षा विभाग (CIE), दिल्ली विश्वविद्यालय द्युतिक डाक
(ईमेल): diwakarsantoshkumar@gmail.com