दुर्गा पूजा का उत्सव भारतीय संस्कृति का एक अनिवार्य हिस्सा है, जो विशेष रूप से पश्चिम बंगाल, ओडिशा और उत्तर भारत के विभिन्न हिस्सों में धूमधाम से मनाया जाता है। नवरात्र के दौरान देवी दुर्गा के नौ रूपों की पूजा की जाती है, जो शक्ति, साहस और नकारात्मकता पर विजय का प्रतीक माने जाते हैं। यह पर्व हर साल चित्तौड़ और विजयदशमी के बीच आता है, और इसे लेकर श्रद्धालुओं में असीम आस्था होती है।
पूजा की तैयारी

नवरात्र के पहले दिन से पहले ही, अंचल में पूजा समितियाँ तैयारियों में जुट जाती हैं। मूर्तिकारों के यहाँ देवी की प्रतिमाएं बनाई जाती हैं, और इन्हें पूजा पंडालों में स्थापित करने के लिए सजाया जाता है। घरों में भी विशेष पूजा-अर्चना का आयोजन किया जाता है, जिसमें भक्तिभाव से माता दुर्गा की आराधना की जाती है।
पंडालों की सजावट

हर साल, पंडालों को भव्यता और सुंदरता के साथ सजाया जाता है। जगह-जगह रंग-बिरंगी लाइटिंग, फूलों की सजावट और विशेष कलाकृतियों से पंडालों को सजाया जाता है। यह सजावट न केवल श्रद्धालुओं को आकर्षित करती है, बल्कि पूरे वातावरण में उत्सव का माहौल भी पैदा करती है।
उत्सव का माहौल
नवरात्र के दिनों में अंचल में एक अद्भुत वातावरण होता है। जगह-जगह भक्ति गीत गूंजते हैं, लोग एक-दूसरे के साथ मिलकर माता की आरती करते हैं और प्रसाद का वितरण करते हैं। दुर्गा पूजा के दौरान लोग अपने रिश्तेदारों और दोस्तों के साथ मिलकर उत्सव मनाते हैं, और इस दौरान खास पकवानों का भी सेवन करते हैं।
विशेष अनुष्ठान
नवरात्र के अंतिम दिन, जिसे दशहरा कहा जाता है, देवी दुर्गा की प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है। इस दिन को बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना जाता है। लोग देवी की मूर्तियों को नदी या तालाब में विसर्जित करते हैं, जिससे बुराई का अंत और नई शुरुआत का संकेत मिलता है।
समापन
इस प्रकार, अंचल में दुर्गा पूजा उत्सव नवरात्र का आयोजन केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक नहीं है, बल्कि यह सामाजिक और सांस्कृतिक एकता का भी प्रतीक है। यह पर्व हमें सिखाता है कि हम सभी को मिलकर बुराई का मुकाबला करना चाहिए और सच्चाई और अच्छाई की राह पर चलना चाहिए
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