अंतिम यात्रा की व्यथा : संवेदनशीलता और सुधार की ज़रूरत

रात के लगभग आठ बजे का समय था। बस्ती जिले के नगर थाना अंतर्गत मरहा ग्राम पंचायत से संबद्ध गोटवा बाजार में राष्ट्रीय राजमार्ग-27 के सर्विस रोड पर सड़क किनारे कुछ लोग इकट्ठा थे। थोड़ी देर पहले हुए एक सड़क हादसे में एक युवक बुरी तरह घायल हो गया था। आसमान में हल्का कुहासा था, हवा भारी थी और ज़मीन पर पड़े युवक के पास खड़े परिजन स्तब्ध थे। कोई एंबुलेंस नहीं, कोई पुलिसकर्मी नहीं—केवल कुछ असहाय लोग, जो उस घायल युवक को टकटकी लगाकर देख रहे थे। किसी ने फोन किया, पर एंबुलेंस नहीं आई। अंततः ग्रामीणों ने आनन-फानन में एक निजी वाहन की व्यवस्था की और घायल युवक को जिला अस्पताल पहुँचाया,

जहाँ डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। रात अधिक हो जाने के कारण परिजनों ने किसी तरह शव को मोर्चरी में रखवाया और घर लौट आए। मगर व्यवस्था की विसंगति अगली सुबह अपने कुरूप रूप में सामने आई। पोस्टमॉर्टम और पंचनामा की प्रक्रिया पूरी करवाने के लिए परिजनों को सूचना दर्ज कराने हेतु कोतवाली बस्ती से लेकर नगर थाने तक भटकना पड़ा। अंततः उच्चाधिकारियों के हस्तक्षेप के बाद ही सूचना दर्ज हो सकी और पोस्टमॉर्टम की प्रक्रिया आगे बढ़ पाई। परिवार का दुख अपार था, पर उससे भी अधिक पीड़ा थी व्यवस्था की बेरुख़ी की। कहते हैं, मृत्यु के बाद सब शांत हो जाता है। लेकिन हमारे तंत्र में मृत्यु भी चैन से नहीं मरती। पोस्टमॉर्टम कक्ष के बाहर खड़े परिजन सोचते हैं कि अब पीड़ा का सिलसिला समाप्त हो गया होगा, पर यहीं से एक नया संघर्ष शुरू होता है—एक मौन, असहाय सौदेबाज़ी का। यह वह क्षण है जब शव की सुपुर्दगी कोई औपचारिक प्रक्रिया नहीं रह जाती,

बल्कि एक ‘अनकही प्रथा’ बन जाती है। कुछ शब्द नहीं बोले जाते, पर सब कुछ समझ लिया जाता है। यह दृश्य किसी एक थाने या अस्पताल का नहीं, बल्कि उस व्यवस्था का प्रतीक है जहाँ संवेदना को भी ‘फीस’ देनी पड़ती है। इस क्षण में मृत्यु के प्रति गरिमा का भाव धुँधला पड़ जाता है, और परिवार का शोक व्यवस्था की चुप्पी में विलीन हो जाता है। यह केवल आर्थिक लेन-देन नहीं, बल्कि सामाजिक संवेदना के पतन का संकेत है—जहाँ मृत्यु भी मनुष्य को मुक्त नहीं करती। यही वह पल है जहाँ हमें सबसे अधिक आत्ममंथन की आवश्यकता है, क्योंकि यदि मृत्यु के बाद भी मनुष्य को सम्मानपूर्वक विदा देने के लिए ‘कुछ देना’ पड़े, तो यह केवल एक परिवार की त्रासदी नहीं, बल्कि समाज की आत्मा पर लगा कलंक है। ऐसी घटनाएँ आज भी हमारे देश में आम हैं।

मृत्यु, जो जीवन का अंतिम सत्य है, जब असमय या अस्वाभाविक रूप में सामने आती है, तो वह केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि पूरे समाज की संवेदनशीलता की परीक्षा लेती है। जो परिवार अपने प्रियजन को खो देता है, उसके लिए यह समय केवल शोक का नहीं, बल्कि अनेक प्रशासनिक और कानूनी उलझनों का भी होता है। यह वे क्षण हैं जब राज्य और समाज दोनों से संवेदना की अपेक्षा की जाती है, लेकिन अक्सर वहाँ केवल औपचारिकता, विलंब और असंवेदनशीलता ही देखने को मिलती है। भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 194 (पूर्व में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 174) के तहत हर अस्वाभाविक मृत्यु की सूचना दर्ज करना और उसकी जांच करवाना अनिवार्य है। इस कानून का उद्देश्य न्यायिक पारदर्शिता और सच्चाई की पुष्टि करना है,

लेकिन ज़मीनी स्तर पर यह प्रक्रिया इतनी जटिल और विलंबपूर्ण होती है कि यह शोकाकुल परिजनों के लिए एक और यातना बन जाती है। थाने के चक्कर, पोस्टमॉर्टम की औपचारिकताएँ, रिपोर्ट का इंतज़ार, शव वाहन की अनुपलब्धता—ये सब उस परिवार के लिए असहनीय बोझ बन जाते हैं जो पहले ही टूट चुका होता है। अक्सर ऐसा होता है कि अस्पताल या घटनास्थल से मोर्चरी तक शव ले जाने के लिए कोई सरकारी वाहन उपलब्ध नहीं होता। ग्रामीण इलाकों में परिजन अपने साधनों से शव को ट्रैक्टर, ठेले या निजी वाहन में ले जाने को मजबूर होते हैं। एंबुलेंस सेवा या शव वाहन के लिए बार-बार कॉल करने पर जवाब मिलता है—“अभी वाहन कहीं और गया है” या “ड्राइवर नहीं है।” यह स्थिति किसी गरीब परिवार के लिए त्रासदी से बढ़कर यातना बन जाती है।

इन परिस्थितियों में सबसे अधिक जो बात चुभती है, वह है प्रशासनिक तंत्र की असंवेदनशीलता। कई बार पुलिस या अस्पताल के कर्मचारी औपचारिकता निभाने के लिए ऐसे शब्द कहते हैं, जो परिजनों के घाव को और गहरा कर देते हैं। कोई व्यक्ति जो अभी-अभी अपने बेटे, पति या पिता को खो चुका है, जब उससे कहा जाता है—“पहले रिपोर्ट लिखाइए, फिर देखेंगे,” तो वह वाक्य किसी वार से कम नहीं लगता। उस समय उसे कानूनी ज्ञान नहीं, बल्कि एक सहारा चाहिए होता है—मानवीय व्यवहार और संवेदनशील दृष्टि। दुर्भाग्य से हमारी व्यवस्था अब तक यह नहीं समझ पाई है कि मृत्यु के बाद की प्रक्रिया केवल कानूनी दायित्व नहीं, बल्कि एक नैतिक जिम्मेदारी भी है।

राज्य का मानवीय चेहरा सबसे पहले इसी क्षण में परखा जाता है—जब वह अपने नागरिक के अंतिम समय में उसके परिवार के साथ खड़ा होता है या नहीं। इस स्थिति में सुधार के लिए सबसे पहले संवेदनशीलता प्रशिक्षण अनिवार्य होना चाहिए। पुलिसकर्मियों, स्वास्थ्यकर्मियों और प्रशासनिक अधिकारियों को यह सिखाया जाना चाहिए कि किसी मृतक परिवार से कैसे संवाद करना है, उन्हें किस प्रकार का सहयोग देना है और किन शब्दों से बचना है। कई देशों में “ग्रेफ हैंडलिंग प्रोटोकॉल” लागू हैं, जिनमें यह स्पष्ट रूप से निर्धारित है कि अस्वाभाविक मृत्यु के मामलों में अधिकारी कैसे व्यवहार करेंगे। भारत में भी ऐसा ही एक मानवीय ढांचा विकसित करने की आवश्यकता है, जो कानून और संवेदना के बीच संतुलन स्थापित कर सके।

मृत्यु के बाद की स्थिति केवल प्रशासनिक या कानूनी नहीं होती—यह गहरे मानसिक आघात का समय भी होती है। किसी परिवार का सदस्य जब अस्वाभाविक रूप से मृत्यु का साक्षी बनता है, या उसके प्रियजन को अचानक खो देता है, तो यह अनुभव मस्तिष्क पर गहरा असर डालता है। यह “आघातोत्तर तनाव” कई बार महीनों या वर्षों तक व्यक्ति के भीतर बना रहता है—निद्रा, भय, अपराधबोध और अवसाद के रूप में। ऐसे में मनोवैज्ञानिक सहायता और वैज्ञानिक उपचारों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। विश्वभर में EMDR (Eye Movement Desensitization and Reprocessing) जैसी तकनीकें आघात निवारण में अत्यंत प्रभावी सिद्ध हुई हैं। इस पद्धति में प्रशिक्षित विशेषज्ञ व्यक्ति को उसके दर्दनाक अनुभवों को क्रमबद्ध रूप से पुनः देखने और संसाधित करने में मदद करते हैं,

जिससे मस्तिष्क उन स्मृतियों को “री-प्रोसेस” कर उन्हें स्वीकार कर पाता है। इससे व्यक्ति धीरे-धीरे भावनात्मक संतुलन पुनः प्राप्त करता है और आघात का बोझ कम होता है। भारत में अब यह समय आ गया है कि मृत्यु या दुर्घटना के बाद केवल शारीरिक औपचारिकताएँ नहीं, बल्कि मानसिक देखभाल को भी व्यवस्था का हिस्सा बनाया जाए। यदि जिला अस्पतालों, पुलिस थानों या आपदा प्रबंधन इकाइयों में ट्रॉमा काउंसलिंग यूनिट्स या EMDR प्रशिक्षित परामर्शदाताओं की नियुक्ति हो, तो यह न केवल पीड़ित परिवारों की पीड़ा को कम करेगा, बल्कि एक संवेदनशील शासन की पहचान भी बनेगा। संवेदना का अर्थ केवल सहानुभूति व्यक्त करना नहीं, बल्कि पीड़ा को समझकर उसका समाधान खोजना है। EMDR जैसी तकनीकें इसी दिशा में आधुनिक और मानवीय पहल हैं, जो मानसिक स्वास्थ्य को प्रशासनिक जिम्मेदारी का अंग बनाती हैं।

इसके साथ ही संसाधनों और संरचना में भी सुधार की आवश्यकता है। हर जिले, हर थाना क्षेत्र और हर अस्पताल में पर्याप्त संख्या में एंबुलेंस और शव वाहन उपलब्ध होने चाहिए। यह अत्यंत दुखद है कि कई स्थानों पर शव वाहन के लिए भी ‘किराया’ देना पड़ता है। यह न केवल अमानवीय है, बल्कि गरिमा के भी विपरीत है। यदि कोई व्यक्ति जीवन में गरीब रहा, तो क्या उसकी मृत्यु के बाद भी उसे सम्मान से वंचित रखा जाएगा? यह प्रश्न हमारी शासन प्रणाली से सीधा उत्तर मांगता है। मृत्यु के बाद की सभी औपचारिकताओं के लिए एकल खिड़की प्रणाली विकसित की जानी चाहिए, ताकि परिजनों को पुलिस, अस्पताल और प्रशासनिक कार्यालयों के बीच दौड़ना न पड़े। यदि यह सब एक समन्वित केंद्र पर हो—जहाँ सूचना दर्ज हो, पोस्टमॉर्टम की प्रक्रिया शुरू हो और आवश्यक दस्तावेज़ पूरे किए जाएँ—तो परिजनों को बड़ी राहत मिलेगी। यह केंद्र मानव गरिमा की रक्षा की दिशा में एक ठोस कदम होगा।

इसी प्रकार तकनीकी और कानूनी सहायता को सुलभ बनाना भी आवश्यक है। अधिकांश परिजनों को यह पता नहीं होता कि अस्वाभाविक मृत्यु के मामले में क्या प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए। सरकार को एक सरल ऑनलाइन पोर्टल और हेल्पलाइन शुरू करनी चाहिए, जहाँ परिवार को तत्काल जानकारी और मार्गदर्शन मिले। यदि इस पोर्टल पर शव वाहन की उपलब्धता, पुलिस रिपोर्ट की स्थिति और पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट की समयसीमा जैसी जानकारी भी मिल सके, तो व्यवस्था पारदर्शी और भरोसेमंद बनेगी। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में देरी, शव सुपुर्दगी में विलंब या रिपोर्ट के लिए महीनों तक इंतज़ार—ये सब न केवल असंवेदनशीलता हैं, बल्कि न्याय की प्रक्रिया को भी प्रभावित करते हैं। हर जिले में यह तय होना चाहिए कि सूचना दर्ज होने के कितने घंटे के भीतर पोस्टमॉर्टम और शव सुपुर्दगी पूरी हो जाएगी। यह केवल सुविधा का नहीं, बल्कि सम्मान का प्रश्न है।

मृत्यु केवल कानूनी या चिकित्सकीय घटना नहीं, बल्कि एक गहन सामाजिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया है। भारतीय समाज में अंतिम संस्कार को शीघ्र पूरा करना धार्मिक और पारिवारिक दायित्व माना जाता है। जब प्रशासनिक विलंब के कारण शव देर से मिलता है, तो यह परिजनों के लिए केवल प्रतीक्षा नहीं, बल्कि गहरी मानसिक वेदना बन जाता है। हमारे शास्त्र कहते हैं—”अंत्येष्टि केवल शरीर का संस्कार नहीं, बल्कि आत्मा के प्रति सम्मान का प्रतीक है।” इस सम्मान को बनाए रखना ही सभ्यता का परिचायक है। आज जब देश तकनीकी रूप से आगे बढ़ रहा है, तो यह सोचने की आवश्यकता है कि क्या हमारी व्यवस्था मानवीय दृष्टि से भी उतनी ही विकसित हुई है? क्या हम मृत्यु के बाद की प्रक्रियाओं में उतनी संवेदनशीलता ला पाए हैं, जितनी हम कानून के पालन में दिखाते हैं? यदि नहीं, तो यह समय आत्ममंथन का है। मृत्यु के बाद की व्यवस्था को संवेदनशील और व्यवस्थित बनाना केवल प्रशासनिक सुधार नहीं, बल्कि यह मानवता की कसौटी है।

राज्य, पुलिस और स्वास्थ्य संस्थानों को यह याद रखना होगा कि कानून के प्रावधानों से पहले संवेदना आती है। जब कोई अधिकारी यह समझेगा कि उसके एक सहयोगी कदम से किसी परिवार की पीड़ा थोड़ी कम हो सकती है, तभी वह सच्चे लोकतांत्रिक प्रशासन का चेहरा कहलाएगा। मृत्यु जीवन का अंत भले हो, लेकिन उस मृत्यु के प्रति हमारा व्यवहार हमारे समाज की आत्मा को परिभाषित करता है। शव का सम्मान केवल एक शरीर का नहीं, बल्कि उस जीवन की स्मृति का सम्मान है जिसने हमारे बीच सांस ली थी। जब कोई व्यवस्था इस सम्मान को कायम रखती है, तब वह केवल सक्षम नहीं, बल्कि संवेदनशील कहलाती है। यदि हम सचमुच एक मानवीय समाज बनना चाहते हैं, तो हमें मृत्यु के बाद की व्यवस्था को गरिमा, सहानुभूति और सरलता से भरना होगा—यही हमारी सभ्यता की पहचान है, यही हमारी सामाजिक जिम्मेदारी, और यही प्रशासन की सबसे बड़ी परीक्षा।

✍️ अखिल कुमार यादव

Bindesh Yadav
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