उत्तर प्रदेश को देश का प्रमुख गन्ना-उत्पादक प्रदेश माना जाता है। यहाँ के लाखों किसान पीढ़ियों से गन्ना-खेती पर निर्भर रहे हैं और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एक बड़ा आधार इसी फसल से तैयार होता है। ऐसे में जब राज्य सरकार ने वित्तीय वर्ष 2025-26 के लिए गन्ने के राज्य परामर्शित मूल्य (State Advised Price–SAP) में वृद्धि की घोषणा की, तो किसानों के बीच उम्मीदें जाग उठीं। कई ग्रामीण इलाकों में इसे इस रूप में देखा गया कि सरकार ने शायद किसानों की बात सुनी है और उनके बेहतर भविष्य की दिशा में एक सकारात्मक कदम उठाया है। किंतु जैसे-जैसे इस निर्णय की परतें खुलती गईं, किसानों, कृषि-विशेषज्ञों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर नजर रखने वाले विश्लेषकों के बीच यह प्रश्न तेजी से उठने लगा कि क्या यह बढ़ोतरी वास्तव में किसानों की आर्थिक सेहत को सुधारने वाली है, या मात्र एक सांकेतिक, वोट बैंक के लाभ से प्रेरित और आंशिक राहत देने वाली घोषणा भर?
सरकार द्वारा घोषित संशोधित दरों पर नज़र डालें तो 2025-26 सीज़न के लिए अग्रवर्ग (Early) गन्ने का मूल्य 400 रुपये प्रति कुंतल और सामान्य प्रजाति का मूल्य 390 रुपये प्रति कुंतल निर्धारित किया गया है। पहली दृष्टि में यह लगभग 8 प्रतिशत की वृद्धि निश्चित रूप से राहतभरी प्रतीत होती है।
सरकारी बयानों में यह भी कहा गया कि इस बढ़ोतरी से किसानों को लगभग 3,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त भुगतान होगा। आंकड़े आकर्षक हैं, और सतही तौर पर यह अनुमान लगाना आसान है कि किसानों की आय में बढ़ोतरी होगी। परंतु क्या इन संख्याओं के पीछे वे वास्तविकताएँ भी शामिल हैं, जिनसे किसान दो-चार हो रहे हैं? क्या यह वृद्धि उनके खर्चों, महंगाई और ऋण-भार की तुलना में पर्याप्त है?
यही वह बिंदु है जहाँ यह घोषणात्मक राहत कमजोर पड़ने लगती है। पिछले कुछ वर्षों में गन्ना उत्पादन की लागत लगातार बढ़ी है। बीज, उर्वरक, कीटनाशक, डीज़ल-सिंचाई, किसानों द्वारा खरीदी जाने वाली मशीनरी व औजार, मजदूरी और परिवहन—इन सभी मोर्चों पर महंगाई ने तेजी से असर डाला है। विभिन्न अध्ययनों और विशेषज्ञ समूहों द्वारा समय-समय पर किए गए आकलनों में यह उल्लेख मिलता रहा है कि प्रदेश में गन्ना उत्पादन पर आने वाली लागत कई क्षेत्रों में 400 रुपये प्रति कुंतल के आसपास पहुँचती है,
और कुछ परिस्थितियों में इससे ऊपर भी जाती देखी गई है। मूल्य निर्धारण पर राष्ट्रीय स्तर की सलाहकारी संस्थाएँ भी प्रायः इस बात पर बल देती रही हैं कि किसान की प्रत्यक्ष लागत के साथ पारिवारिक श्रम तथा भूमि उपयोग जैसी अप्रत्यक्ष मदों का समुचित परिप्रेक्ष्य में आकलन आवश्यक है। ऐसी पृष्ठभूमि में, वर्तमान सीज़न के लिए घोषित 390 रुपये (सामान्य) और 400 रुपये (अग्रवर्ग) प्रति कुंतल का राज्य सलाहित मूल्य, कई किसानों द्वारा संतोषजनक कहे जाने के साथ-साथ कुछ हलकों में अन्य पहलुओं पर विचार की आवश्यकता की ओर भी संकेत करता है। इन चर्चाओं में कहीं-कहीं यह स्वर भी उभरता है कि मूल्य निर्धारण का आधार किन तत्वों को किस अनुपात में समाहित करता है, इस पर आगे और विमर्श की गुंजाइश बनी हुई है।
यदि किसान की जेब में पैसा तब भी न बचे, जब मूल्य बढ़ाया गया हो, तो मूल्य-वृद्धि का औचित्य और उपयोगिता दोनों संदिग्ध हो जाते हैं। और यहाँ से जुड़ा एक और महत्वपूर्ण पहलू है–भुगतान-सुरक्षा। उत्तर प्रदेश में गन्ना-भुगतान हमेशा विवाद और असंतोष का विषय रहा है। रिकॉर्ड बताते हैं कि अधिकांश सीज़न में किसानों को मिलों से देरी से भुगतान मिलता है। कई-कई महीनों तक बकाया राशि अटकी रहती है, और किसान साहूकारों, महाजनों या बैंक ऋणों के दबाव में आर्थिक संकट झेलते हैं। सिर्फ मूल्य बढ़ाने से किसानों का भला तभी होगा जब भुगतान समय-सीमा में हो,
पारदर्शिता सुनिश्चित की जाए और बकाया की समस्या का समाधान हो। उद्योग-संघ और विशेषज्ञ पहले ही संकेत दे चुके हैं कि मौजूदा परिस्थितियों में बकाया भुगतान और बढ़ने का खतरा है। इसकी पृष्ठभूमि में दो प्रमुख कारण बताए जा रहे हैं—चीनी कीमतों में अस्थिरता और एथेनॉल नीति को लेकर अनिश्चितता। यदि मिलों के पास भुगतान क्षमता ही कमजोर होगी, तो मूल्य-वृद्धि का भार किसान पर ही वापस आ जाएगा।
तीसरा महत्वपूर्ण पक्ष है असमानता और समावेशिता का अभाव। बढ़े हुए मूल्य का लाभ हर किसान को समान रूप से नहीं मिलता। बड़े और संसाधनयुक्त किसान, जिनके पास भूमि, सिंचाई-सुविधाएँ, ट्रैक्टर-ट्रॉली, स्थानीय प्रभाव और मिल तक बेहतर पहुँच है, वे अपेक्षाकृत अधिक लाभ उठा लेते हैं। जबकि छोटे-सीमांत किसान—जो कि उत्तर प्रदेश के ग्रामीण परिदृश्य की सबसे बड़ी आबादी हैं—अकेले अपनी फसल की कटाई, ढुलाई और मिल-परिवहन की लागत झेलते हैं और उन्हें मूल्य-वृद्धि का वास्तविक लाभ या तो कम मिलता है या कई बार मिलता ही नहीं। इसके अतिरिक्त पिछड़े वर्ग, दलित और हाशिये पर मौजूद किसानों के लिए गन्ना-खेती में समान अवसर तभी संभव है जब सुविधाएँ, योजनाएँ और सहायताएँ समावेशी हों। लेकिन वर्तमान वृद्धि में इस पक्ष की अनदेखी साफ दिखाई देती है। यह भी उल्लेखनीय है कि गन्ना मूल्य-वृद्धि को अक्सर राजनीतिक निर्णय की तरह देखा जाता है—यानी एक सीज़न-केंद्रित, चुनाव-प्रेरित और तात्कालिक राहत के रूप में। जबकि गन्ना खेती की प्रकृति चक्रीय है
और दीर्घकालीन दृष्टि की मांग करती है। किसान एक बार गन्ना बोते हैं, तो वह तीन वर्षों तक खेत से जुड़ी रहती है—खरपतवार नियंत्रण, सिंचाई, रख-रखाव, रैटून प्रबंधन, उर्वरक-प्रबंधन जैसी प्रक्रियाएँ निरंतर चलती रहती हैं। यदि मूल्य सिर्फ एक सीज़न के लिए बढ़ा दिया गया, पर अगले वर्षों में लागत और मेहनत बढ़ती रही और मूल्य स्थिर रहा, तो किसान की स्थिर आय-संरचना नहीं बन पाएगी। यही कारण है कि कृषि-अर्थशास्त्री लगातार यह मांग कर रहे हैं कि समर्थन-मूल्य को दीर्घकालीन फार्मूले के साथ जोड़ा जाए, न कि केवल राजनीतिक घोषणाओं के आधार पर निर्धारित किया जाए। एक और चिंता का विषय है कि इस वृद्धि में किसान की आजीविका-सुरक्षा की समग्र रणनीति अनुपस्थित है। किसान की आय सिर्फ मूल्य पर निर्भर नहीं है,
बल्कि पूरी वैल्यू-चेन के सुचारू संचालन पर आधारित है—फसल-प्रबंधन, दक्ष कटाई, लागत-कमी, मिल-समय पर क्रशिंग, पारदर्शी स्लिप व्यवस्था, गुणवत्ता-आधारित मूल्यांकन, बकाया का त्वरित निपटान और किसानों को प्राकृतिक जोखिम, मौसम अस्थिरता व बाजार उतार-चढ़ाव के विरुद्ध सुरक्षा। जब तक इन सभी आयामों पर एकीकृत सुधार नहीं होंगे, तब तक मूल्य-वृद्धि एक दिखावटी आश्वासन भर बनकर रह जाएगी।
इन परिस्थितियों में आवश्यक है कि मूल्य-निर्धारण और गन्ना-प्रबंधन की पूरी प्रणाली में व्यापक सुधार किए जाएँ। सबसे पहले, उत्पादन-लागत का वैज्ञानिक निर्धारण अनिवार्य हो। राज्य सरकार को चाहिए कि वह कृषि विश्वविद्यालयों, विशेषज्ञों और किसान-संस्थाओं की मदद से वास्तविक लागत का वार्षिक सर्वेक्षण कराए और उस आधार पर समर्थन-मूल्य घोषित करे—जिसमें लागत के साथ किसान के लिए उपयुक्त लाभांश भी शामिल हो। इससे किसानों को न केवल लागत-वापसी सुनिश्चित होगी, बल्कि खेती में सम्मानजनक लाभ भी सम्भव हो सकेगा।
दूसरे, भुगतान और अनुबंध-व्यवस्था को सख्त और डिजिटल बनाया जाए। मिलों को निश्चित समय-सीमा के भीतर भुगतान करने पर बाध्य किया जाए और देरी पर स्पष्ट दंडात्मक प्रावधान लागू हों। किसान-मिल इंटरफेस को डिजिटल करें, ताकि स्लिप व्यवस्था, तोल, वजन, गुणवत्ता और भुगतान की स्थिति पारदर्शी हो और बिचौलियों तथा दबाव-तंत्र को कम किया जा सके।
तीसरे, किसानों को गुणवत्ता-आधारित प्रोत्साहन दिया जाए। उच्च-शर्करा (high-recovery) प्रजातियों, बेहतर फसल प्रबंधन, कचरा-कमी, टिकाऊ कृषि-तकनीक और वैज्ञानिक सलाह अपनाने वाले किसानों के लिए बोनस-प्रोत्साहन तय हो, ताकि प्रदेश में उच्च गुणवत्ता वाले गन्ने का उत्पादन बढ़े और कुल लाभ में किसान की हिस्सेदारी भी सुनिश्चित हो सके।
चौथे, छोटे और सीमांत किसानों के लिए विशेष सहायता उपाय तैयार किए जाएँ—जैसे समूह-आधारित कटाई-ढुलाई व्यवस्था, कस्टम-हायरिंग सेंटर, सस्ती कृषि-मशीनरी उपलब्धता, सिंचाई-सहायता, माइक्रो-इरिगेशन और सस्ते ऋण। इससे न केवल लागत घटेगी, बल्कि गन्ना-खेती उनके लिए टिकाऊ और लाभकारी बन सकेगी।
पाँचवाँ और अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू यह है कि गन्ना-खेती को बहुआयामी आय-स्रोतों से जोड़ा जाए। केवल चीनी उत्पादन मॉडल पर निर्भरता किसान और उद्योग दोनों के लिए जोखिमपूर्ण है। गन्ने से उत्पन्न बायोमास, बैगास से विद्युत उत्पादन, प्रेसमड से जैविक खाद, कंपोस्ट व CBG (कंप्रेस्ड बायोगैस) और इथेनॉल-आधारित ऊर्जा क्षेत्र में बड़े अवसर हैं। यदि गन्ना-उत्पादों का विविधीकरण बढ़ता है, तो किसानों की आय-संरचना मजबूत होगी और बाजार अस्थिरता का दबाव कम पड़ेगा।
अंततः, उत्तर प्रदेश में गन्ना-मूल्य वृद्धि की तात्कालिक घोषणा भले ही सकारात्मक महसूस हो, लेकिन किसानों की वास्तविक जरूरतों, लागत-संतुलन, समय-पर भुगतान और दीर्घकालीन आजीविका-सुरक्षा के संदर्भ में यह अपर्याप्त प्रतीत होती है। यह आवश्यक है कि इसे केवल आंकड़ों की जीत न समझा जाए, बल्कि इसे किसान-हित में एक ठोस परिवर्तन के रूप में तब्दील करने के लिए प्रणालीगत सुधारों की दिशा में तुरंत और प्रभावशाली कदम उठाए जाएँ। तभी यह बढ़ोतरी किसानों की जिंदगी में वास्तविक बदलाव ला सकेगी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को स्थायी मजबूती दे पाएगी; अन्यथा यह केवल एक अच्छी घोषणा बनकर रह जाएगी, जिसका लाभ किसानों तक अधूरा ही पहुँच पाएगा।
✍️ अखिल कुमार यादव










